Home » राधा चालीसा – जय वृषभान कुंवारी श्री श्यामा
॥दोहा॥
जय जय जय जग पावनी
जयति देवसरि गंग ।
जय शिव जटा निवासिनी
अनुपम तुंग तरंग ।
॥चौपाई॥
जय जय जननी हराना अघखानी
आनंद करनी गंगा महारानी ।
जय भगीरथी सुरसरि माता
कलिमल मूल डालिनी विख्याता ।
जय जय जहानु सुता अघ हनानी
भीष्म की माता जगा जननी।
धवल कमल दल मम तनु सजे
लखी शत शरद चंद्र छवि लजाई ।
वहां मकर विमल शुची सोहें
अमिया कलश कर लखी मन मोहें ।
जदिता रत्ना कंचन आभूषण
हिय मणि हर, हरानितम दूषण ।
जग पावनी त्रय ताप नासवनी
तरल तरंग तुंग मन भावनी ।
जो गणपति अति पूज्य प्रधान
इहूं ते प्रथम गंगा अस्नाना ।
ब्रह्मा कमंडल वासिनी देवी
श्री प्रभु पद पंकज सुख सेवि ।
साथी सहस्त्र सागर सुत तरयो
गंगा सागर तीरथ धरयो ।
अगम तरंग उठ्यो मन भवन
लखी तीरथ हरिद्वार सुहावन ।
तीरथ राज प्रयाग अक्षैवेता
धरयो मातु पुनि काशी करवत ।
धनी धनी सुरसरि स्वर्ग की सीधी
तरनी अमिता पितु पड़ पिरही।
भागीरथी ताप कियो उपारा
दियो ब्रह्म तव सुरसरि धारा ।
जब जग जननी चल्यो हहराई
शम्भु जाता महं रह्यो समाई ।
वर्षा पर्यंत गंगा महारानी
रहीं शम्भू के जाता भुलानी ।
पुनि भागीरथी शम्भुहीं ध्यायो
तब इक बूंद जटा से पायो ।
ताते मातु भें त्रय धारा
मृत्यु लोक, नाभा, अरु पातारा ।
गईं पाताल प्रभावती नामा
मन्दाकिनी गई गगन ललामा ।
मृत्यु लोक जाह्नवी सुहावनी
कलिमल हरनी अगम जग पावनि ।
धनि मइया तब महिमा भारी
धर्मं धुरी कलि कलुष कुठारी ।
मातु प्रभवति धनि मंदाकिनी
धनि सुर सरित सकल भयनासिनी ।
पन करत निर्मल गंगा जल
पावत मन इच्छित अनंत फल ।
पुरव जन्म पुण्य जब जागत
तबहीं ध्यान गंगा महं लागत ।
जई पगु सुरसरी हेतु उठावही
तई जगि अश्वमेघ फल पावहि ।
महा पतित जिन कहू न तारे
तिन तारे इक नाम तिहारे ।
शत योजन हूं से जो ध्यावहिं
निशचाई विष्णु लोक पद पावहीं ।
नाम भजत अगणित अघ नाशै
विमल ज्ञान बल बुद्धि प्रकाशे ।
जिमी धन मूल धर्मं अरु दाना
धर्मं मूल गंगाजल पाना ।
तब गुन गुणन करत दुख भाजत
गृह गृह सम्पति सुमति विराजत ।
गंगहि नेम सहित नित ध्यावत
दुर्जनहूं सज्जन पद पावत ।
उद्दिहिन विद्या बल पावै
रोगी रोग मुक्त हवे जावै ।
गंगा गंगा जो नर कहहीं
भूखा नंगा कभुहुह न रहहि ।
निकसत ही मुख गंगा माई
श्रवण दाबी यम चलहिं पराई ।
महं अघिन अधमन कहं तारे
भए नरका के बंद किवारें ।
जो नर जपी गंग शत नामा
सकल सिद्धि पूरण ह्वै कामा ।
सब सुख भोग परम पद पावहीं
आवागमन रहित ह्वै जावहीं ।
धनि मइया सुरसरि सुख दैनि
धनि धनि तीरथ राज त्रिवेणी ।
ककरा ग्राम ऋषि दुर्वासा
सुन्दरदास गंगा कर दासा ।
जो यह पढ़े गंगा चालीसा
मिली भक्ति अविरल वागीसा ।
॥ दोहा ॥
नित नए सुख सम्पति लहैं, धरें गंगा का ध्यान
अंत समाई सुर पुर बसल, सदर बैठी विमान ।
संवत भुत नभ्दिशी, राम जन्म दिन चैत्र
पूरण चालीसा किया, हरी भक्तन हित नेत्र ।