Home » गणपति अथर्वशीर्ष पाठ के लाभ
गणेश भगवान को प्रथम पूज्य भगवान कहा जाता है, कोई भी शुभ काम हो या कोई भी पूजा हो सबसे पहले गणेश जी की ही पूजा की जाती है। गणेश अपने भक्तों के समस्त विघ्न, बाधाओं का नाश करने वाले देवता हैं। गणेश जी की पूजा हर दिन की जाती है, लेकिन बुधवार का दिन उन्हें समर्पित है। ऐसी मान्यता है कि बुधवार के दिन गणपति का पूजन, स्तोत्र पाठ और मंत्रोच्चारण से जातक का कल्याण होता है। विघ्नहर्ता को समर्पित एक वैदिक प्रार्थना है गणपति अथर्वशीर्ष। ऐसा बताया जाता है कि प्रतिदिन गणेश जी का अथर्वशीर्ष पाठ करने से घर और जीवन के अमंगल दूर होते हैं।
जिस जातक की कुंडली में राहु, केतु और शनि का अशुभ प्रभाव पड़ रहा हो, उनके लिए गणेश अथर्वशीर्ष का पाठ करना बहुत लाभदायक होता है। ऐसे व्यक्ति को प्रतिदिन गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करना चाहिए। इससे व्यक्ति के दुखों का अंत हो जाता है। गणेश अथर्वशीर्ष का पाठ करने से पढ़ाई में छात्र-छात्राओं का मन लगता है और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे युवाओं को सफलता मिलती है।
ॐ नमस्ते गणपतये। त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि त्वमेव केवलं कर्ताऽसि त्वमेव केवलं धर्ताऽसि त्वमेव केवलं हर्ताऽसि त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्माऽसि त्व साक्षादात्माऽसि नित्यम।।1।। ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि 2
अव त्व मां। अव वक्तारं। अव श्रोतारं। अव दातारं। अव धातारं। अवानूचानमव शिष्यं। अव पश्चातात्। अव पुरस्तात्। अवोत्तरात्तात्। अव दक्षिणात्तातत्। अवचोर्ध्वात्तात।। अवाधरात्तात्।। सर्वतो मॉं पाहि-पाहि समंतात।।3।।
त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मय:। त्वमानंदमसयस्त्वं ब्रह्ममय:। त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्माऽसि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि।।4।।
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते। सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति। सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति। सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति। त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ:। त्वं चत्वारि वाक्पदानि।5।।
त्वं गुणत्रयातीत: त्वमवस्थात्रयातीत:। त्वं देहत्रयातीत:। त्वं कालत्रयातीत:। त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यं। त्वं शक्तित्रयात्मक:। त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यं। त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं त्वं रुद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुव:स्वरोम।।6।।
गणादि पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरं। अनुस्वार: परतर:। अर्धेन्दुलसितं। तारेण ऋद्धं। एतत्तव मनुस्वरूपं। गकार: पूर्वरूपं। अकारो मध्यमरूपं। अनुस्वारश्चान्त्यरूपं। बिन्दुरुत्तररूपं। नाद: संधानं। स हितासंधि: सैषा गणेश विद्या। गणकऋषि: निचृद्गायत्रीच्छंद:। गणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नम:।।7।।
एकदंताय विद्महे। वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो दंती प्रचोदयात्।।8।।
एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम। रदं च वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषकध्वजम। रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम। रक्तगंधाऽनुलिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपुजितम।। भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम। आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृते पुरुषात्परम। एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वर:।।9।।
नमो व्रातपतये। नमो गणपतये। नम: प्रमथपतये। नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय। विघ्ननाशिने शिवसुताय। श्रीवरदमूर्तये नमो नम:।।10।।